बैंक चोर देख 2005 में रिलीज हुई फिल्म 'ब्लफमास्टर' याद आ जाती है क्योंकि दोनों फिल्मों का प्रस्तुतिकरण एक जैसा है। 'ब्लफमास्टर' के अंत में पता चलता है पूरी फिल्म में जो हो रहा था वो एक नाटक था, कुछ ऐसा ही 'बैंक चोर' में भी होता है। 'ब्लफमास्टर' का ड्रामा न केवल मनोरंजक था बल्कि जो दिखाया जा रहा था वो इतना सच्चा था कि दर्शक उस पर यकीन कर बैठते हैं और अंत में जब दर्शकों को बताया जाता है कि यह सब नकली था तो वे इस तरह ठगे जाने के बावजूद खुश होते हैं, लेकिन 'बैंक चोर' में दर्शक कही भी फिल्म से जुड़ नहीं पाते। अंत में जब उतार-चढ़ाव बता कर राज पर से परदा उठाया जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसके लिए लेखक और निर्देशक को दोष दिया जा सकता है।