वीडियो जानकारी:
शब्दयोग सत्संग
२० नवम्बर २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
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यस्तु विज्ञानवान् भव
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।१४।।
~ कठोपनिषद, तृतीय वल्ली, श्लोक क्रमांक १४
प्रसंग:
सत्य को छुरे की धार जैसा क्यों कहा गया है?
क्या ध्यानस्थ के लिए सत्य सहज और सरल है?
सत्य सरल होकर भी भयंकर क्यों?
सत्य क्या है?
सत्यस्थ में कैसे स्थापित रहें?
क्या सत्य कल्पनातीत है?
क्या सत्य का अनुभव किया जा सकता है?
संगीत: मिलिंद दाते