Sixteen-day Shradh starts from the full moon of Bhadrapada Shukla Paksha, so Shradh will start from 20th September and will end on Wednesday, 6th October, on the new moon of Ashwin month. Shradh is also known as Mahalaya or Pitru Paksha. According to Acharya Indu Prakash, the word Shradh is derived from Shraddha, which means reverence for the ancestors.Padhas are the parts of our ancestors in the blood flowing within us, due to which we are indebted to them and to pay off this debt, Shradh rituals are performed. You can understand this in another way also. The sperm-of the father, with which the soul enters the mother's womb, has 84 degrees, out of which 28 degrees are earned from the man's own food and 56 degrees belong to the former men. Of them also 21 belong to his father, 15 to his grandfather, 10 to his father, 6 to the fourth man, 3 to the fifth man and one to the sixth man. In this way, there is unity of blood of all the ancestors of the lineage for seven generations, so Shradh or Pind Daan is mainly given to the ancestors up to three generations. The work done during Pitru Paksha not only gives peace to the soul of the ancestors, but the doer also gets freedom from the debt of the ancestors.
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सोलह दिवसीय श्राद्ध प्रारंभ होते हैं, लिहाजा 20 सितंबर से श्राद्ध की शुरुआत हो जाएगी और आश्विन महीने की अमावस्या को यानि 6 अक्टूबर, दिन बुधवार को समाप्त होंगे। श्राद्ध को महालय या पितृपक्ष के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य इंदु प्रकाश के मुताबिक, श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है, जिसका मतलब है पितरों के प्रति श्रद्धा भाव। पद्त हमारे भीतर प्रवाहित रक्त में हमारे पितरों के अंश हैं, जिसके कारण हम उनके ऋणी होते हैं और यही ऋण उतारने के लिए श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। आप दूसरे तरीके से भी इस बात को समझ सकते हैं। पिता के जिस शुक्राणु के साथ जीव माता के गर्भ में जाता है, उसमें 84 अंश होते हैं, जिनमें से 28 अंश तो शुक्रधारी पुरुष के खुद के भोजनादि से उपार्जित होते हैं और 56 अंश पूर्व पुरुषों के रहते हैं। उनमें से भी 21 उसके पिता के, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामाह के, 6 अंश चतुर्थ पुरुष के, 3 पंचम पुरुष के और एक षष्ठ पुरुष के होते हैं। इस तरह सात पीढ़ियों तक वंश के सभी पूर्वज़ों के रक्त की एकता रहती है, लिहाजा श्राद्ध या पिंडदान मुख्यतः तीन पीढ़ियों तक के पितरों को दिया जाता है। पितृपक्ष में किये गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को तो शांति प्राप्त होती ही है, साथ ही कर्ता को भी पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है।
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