वीडियो जानकारी:
पार से उपहार शिविर, 17.04.20, ग्रेटर नॉएडा, भारत
प्रसंग:
अहं पुरा भरतो नाम राजा विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः।
आराधनं भगवत ईहमानो मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः॥१४॥
सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर कृष्णार्चनप्रभवानोजहाति।
अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि॥१५॥
भावार्थ : पूर्वजन्म मे मै भरत नाम का राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयो से विरक्त होकर भगवान की आराधना मे ही लगा रहता था तो भी मुझे एक मृग मे आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म मे मृग बनना पड़ा है।
वीर! भगवान श्री कृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृग योनि मे भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई इसी से मै अब जनसम्पर्क से डर कर सर्वदा असंगभाव से गुप्तरूप ही विचरता रहता हूँ तो ऋषि जड़भरत राजा को ऐसा बताते है।
परमहंस गीता (अध्याय ३, श्लोक १४ -१५ )
~ कर्मफल का सिद्धांत क्या है?
~ मुक्त होते हुए भी बंधन को क्यों चुनते हैं?
~ मन और आत्मा में क्या रिश्ता हैं?
~ निरंतर सतर्कता कैसे रखे?
~ आसक्ति से मुक्ति कैसे संभव हैं?
संगीत: मिलिंद दाते
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