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वीडियो जानकारी: शब्दयोग सत्संग, 28.07.2019, अद्वैत बोधस्थल ,ग्रेटर नॉएडा , भारत
प्रसंग:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणःपरधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयःपरधर्मो भयावहः ॥३४॥
भावार्थः
दूसरों के कर्तव्य का भली-भाँति अनुसरण करने की अपेक्षा
स्वधर्म को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी है ।
दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है,
और स्वधर्म में मरना भी श्रेयस्कर होता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३५)
~ क्या मन की गति भी सूक्ष्म कर्म है और मोह उसका कारण है?
~ मोह को करीब से कैसे जाने?
~ मोह-माया से कैसे बचें?
~ नियत कर्म क्या है?
~ क्या हमारे सभी कर्म मोह से आते है?
~ दूसरे के धर्म से यहाँ क्या आशय है?
संगीत: मिलिंद दाते
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