यूँ तो किसी मंदिर में प्रवेश करना बहुत आसान है ऊपरी तौर से देखा जाये तो आप मंदिर में प्रवेश कर जाते हो लेकिन असल में मंदिर में प्रवेश केवल उसी इंसान का होता है जो अपने मन को मंदिर के बाहर छोड़ के आता है अगर आप अपने मैं को मंदिर के गेट पर नही छोड़ के आये तो आपका अब तक मंदिर में प्रवेश हुआ ही नही है।
अगर आप सोचे मेरा मन तो साफ़ है तो बता दे मन का कोई सानी नहीं है समझ लीजिये किसी नें आप से कहा की अहंकार को त्याग दीजिये तो आप घमंड को त्यागकर विनम्र बन जाते है और फिर कहते है की देखो इस दुनिया में मुझसे बड़ा विनम्र और कोई नही है तो आ गया न अहंकार पीछे पीछे वापिस।
ऐसे ही आपको पता नही चल पाता की आपका मन क्या गेम खेलता है।
चलिए बताते है आपको एक छोटी सी घटना एक बार जंगल में रहने वाले तपस्वी के पास एक व्यक्ति गया उसने कहा की हे सन्यासी हमने सुना है तुम न ही किसी को शिष्य बनाते हो और न ही किसी यश और प्रसिद्धि की कामना करते हो और जंगल से इतनी दूर इस वीरानी में आ कर तपस्या कर रहे हो आखिर जब तुम कुछ चाहते ही नही हो तो फिर ये सब क्यों।
और इस एकांत में ऐसा करने का मतलब ? वहां शहर में भी कई सन्यासी है और तपस्वी है वो भी तो इतनी ही तपस्या करते है