वे निकल रहे हैं सैकड़ों। पैदल ही चले जा रहे हैं। लगातार। कहीं झुंड में, कहीं अकेले। बच्चे हैं, नौजवान लडक़े हैं। दुधमुंहे बच्चों को गोद में लिए औरतें हैं। पीठ पर सामान लादे अधेड़ हैं। पीने का पानी तक नहीं है इनके पास। डरे-सहमे ये लोग पुलिस वालों को नजरों को बचते-बचाते भागे जा रहे हैं। यह मानव पंक्ति टूटती ही नहीं। यह समूह कोई पदयात्रियों का दल नहीं। यह तीर्थयात्री भी नहीं। ये लोग उन शहरों से निराश होकर निकले हैं, जिसकी गाड़ी के ये ईंधन हैं। पीठ पर सवार शहरी अर्थव्यवस्था को इन सबने उतार फेंका है। इनकी पीठ पर लदी है सपनों की गठरी। कोरोना से निपटने के लिए सरकार ने अपना खजाना खोल दिया है। 1.70 लाख करोड़ के राहत पैकेज का एलान किया है। लेकिन, यह खबर भी इन्हें तसल्ली नहीं दे पायी। हर क्षणांस व्हाट्स का ज्ञान जो हर किसी के दिमाग को कोरोना से भी ज्यादा संक्रमित कर रहा है, वह भी इन्हें नहीं रोक पाया।