वीडियो जानकारी:
पार से उपहार शिविर, 15.02.20, ऋषिकेश, उत्तराखंड, भारत
प्रसंग:
पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक् ।
कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ।।
भावार्थ: जिस पुरुष का मन अशांत है, असंयत है, उसी को पागल की तरह अनेको वस्तुएँ मालुम पड़ती हैं; वास्तव में यह सब चित्त का भ्रम ही है । नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही ‘यह गुण है’‘यह दोष है’ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है, जो दृढ़मूल हो गया है उसी के लिए कर्म, अकर्म और विकर्म के भेद का प्रतिपादन हुआ है ।
~अवधूत गीता (अध्याय १, श्लोक ८)
~ " बुद्धि में नानात्व का भ्रम हो जाता है " इसका क्या अर्थ है?
~ नानात्व दूर कैसे हो?
~ मन की अशांति दूर कैसे हो?
~ ज्ञान को जीवन में कैसे उतारें?
~ नानात्व को पचेड़ा क्यों कहते हैं?
~ कर्मों को गौर से देखने पर इतना ज़ोर क्यों है?
~ कर्म- अकर्म, विकर्म या निष्काम है, यह जानने पर क्यों इतना ज़ोर है?
~ कर्ता परेशान क्यों है?
संगीत: मिलिंद दाते
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