भगवद गीता अध्याय १ पद २९, ३० और ३१ | अर्था । आध्यात्मिक विचार

Artha 2019-02-05

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इस वीडियो में देखिये कि अपने रिश्तेदारों को अपने सामने युद्ध के लिए खड़ा देख अर्जुन की क्या अवस्था हुई

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१ उन्तीसवें, तीसवें और इकत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ने कहा;

वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।।२९।।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।।३०।।


न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।।३१।।

२ यहां अर्जुन भगवान कृष्ण को 'केशव' कहते हैं, जिन्होने केशी नामक राक्षस का वध किया था

३ इन श्लोक में अर्जुन यह बताना चाहता है;

मेरा पूरा शरीर काँप रहा है और मेरे शरीर के बाल इस कंपन के कारण खड़े हो रहे है, मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है।। २९।।


हे केशव, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ। में केवल अशुभ लक्षणों को देख रहा हूँ ।।३०।।

हे कृष्ण! युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूँ और न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूँ ।।३१।।

४ भगवद गीता के अगले वीडियो में देखिए, कि अर्जुन अचानक क्यों राज्य और ख़ुशी की इच्छा नहीं रख पा रहा है जोकि उसके भाग्य में लिखी हुई है

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